चुपचाप कम्बल ओढ़ के घी पीते रहिए


avinash bharadwaj

ऐसा कभी होता नहीं था. समय बदला जिम्मेवारी बदली और फिर यूँ लगा कि आसपास का पूरा संसार ही बदल गया. हर पल गुस्सा आना, मुहँ  से गाली निकलना, चिड़चिड़ापन जीवन का एक अंग बन गया. सुहाने सपनेउन्मुक्त गगन, भूत, वर्तमान, भविष्य सब बदल गया. चलते चलते न जाने कौन सी राह हमने चुन ली की झटके में सब बदल गया और माइंडवा भी जो हर हमेशा चलता रहता था वो भी आज कल चलना बंद हो गया है.

हो भी क्यों नहीं ! ये संगठन की दुनिया ही अजूबी है सरकार. इस संसार का आठव़ा अजूबा संगठन ही तो है. यहाँ सब कुछ भगवान भरोसे ही तो चलता है न ! मंद मंद गति से मदमस्त हाथी के तरह, गुरुर भी तो इसी को कहते हैं न, और यही गुरुर तो है जो हमें इस दुनिय में ले आया.  इसी गुरुर की तो बात हम कर रहें हैं. हम भी मदमस्त हाथी वाले चालों में चले जा रहें हैं. दुनिया की हैरानी परेशानी वाली बातों को पीछे छोड़े यूँ ही धारा के विपरीत मंद-मंद गति से तैरते जा रहें हैं.

लेकिन फिर से पॉइंट पर आते हैं.  मंद मंद गति से चलते चलते गुस्सा क्यों आने लगा इहे बताने के लिए तो हम लिखने बैठे. साला आये भी क्यों नहीं जेब में पैसा तो होता नहीं ! जब भी जेब में हाथ डालते हैं बस खाली ही मिलता है. पता नहीं कौन सा बैलास्टिक मिसाइल के स्पीड से पैसा उड़ जाता है और सारा टेंसनवा का जड़ भी तो इहे है न. पैसा का न होना ! तो चेहरा पर चमक कहाँ से मिलेगा बऊवा. और इहे तो हाल है जब से संगठन से जुड़े हैं.

नायका-नायका आईडिया दिमाग में तो आता है परन्तु उसको हम चुपचाप एगो कोना पकड़ा देते हैं, क्या करें मज़बूरी जो है, डर जो लगता है. साला पता नहीं कौन आईडिया अंत में कितना जेब को ढीला कर चल देगा उसका लिमिट भी तो नहीं है न ! और हमहूँ कोनो अम्बानी तो है नहीं रे बबुआ, तो चुपचाप रहना मजबुरी है.

और इहे बात हम समझाने की कोशिश करते रहते हैं, आप को तब समझ में आयेगा जब आप भी संगठन में मंद-मंद हाथी के तरह मदमस्त चाल से आइयेगा, और संगठन के साथ चलियेगा. तब ही समझ पाईयेगा ई टेंसनबा के जड़ को. नहीं तो फिर रहने ही दीजिये. चुपचाप कम्बल ओढ़ कर घी पीते रहिये, और शुतुरमुर्ग के तरह कभी कभार हमको एक दो बिन मांगे सजेशन दे दिया कीजियेगा. कभी कभार गरिया भी लिया कीजिये. सब चलता है इहे सोच कर. लेकिन हमरी तैयारी रहेगी एक लम्बे संघर्ष के लिए.

लेखक : अविनाश भारतद्वाज

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